वैवाहिक दुष्कर्म



भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त हुए 74 वर्ष हो चुके और संविधान को लागू हुए 71 वर्ष हो चुके हैं। संविधान हमें मूल अधिकार की गारंटी देता है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण समानता का अधिकार है व लैंगिक समानता अति महत्वपूर्ण है। 
परंतु सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हम लैंगिक समानता की धरातल पर कहां है? अभी भी असमानता सर्वत्र दिखाई पड़ती है। स्त्री अभी भी अपने मौलिक अधिकारों से वंचित है। 
स्त्रियों के इस वंचन की जड़ में हमारी पुरानी सड़ी- गली मान्यताएं हैं जिस पर हमारा समाज पुनर्विचार करने को उत्सुक नहीं दिखता है। विवाह और परिवार का आधार प्रेम न होने के कारण और समाज में प्रचलित अनुचित मान्यताओं के कारण इसका सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव महिलाओं पर पड़ा है।
हमारा समाज आज भी पितृसत्तात्मक विचारधारा का है जिसमें पति को परमेश्वर मानने की  अवधारणा है। यहीं से शोषण शुरू होता है।। पुरुष वर्ग मनुष्य तो नहीं बन पाता परंतु स्त्री का परमेश्वर बनने की चेष्टा करता है। इसी मान्यता से पुरुष यह मानता है कि पत्नी उसकी दासी है, वह जो भी कहे स्त्री बिना प्रश्न किए मान ले, वह जो चाहे आदेश दे, जो चाहे दंड दे, जब चाहे प्रेम करें, जब चाहे अपमान करें, जब चाहे उत्पीड़ित करें क्योंकि वह परमात्मा है और परमात्मा का अधिकार सर्वोपरि है। इसी मान्यता के कारण स्त्री का विवाह के पश्चात भी बलात्कार होता है।
   बलात्कार का अर्थ होता है , " बिना दूसरे की सहमति या स्वीकृति के उसके साथ संबंध बनाना।" हमारा समाज बहुत ही दोहरे मस्तिष्क का है। विवाह के पश्चात पुरुष की स्वामित्व वाली मान्यता सर्वोपरि होता है कि स्त्री को पुरुष के आधीन रहना चाहिए। भले ही स्त्री की इच्छा कुछ और हो, भले ही उसका स्वास्थ्य ठीक ना हो, भले ही किसी दिन वह थकी- हारी हो, भले ही उस दिन उसकी इच्छा ना हो, उसे पति की आज्ञा को नकारना नहीं चाहिए क्योंकि ऐसा करना परमात्मा के आदेश को नकारना हो जाएगा।
   यदि विवाह के पूर्व यही कृत्य किसी स्त्री के साथ हो तो समाज भी स्वीकारता है कि यह स्त्री के साथ  दुष्कर्म या अन्याय है। फिर विवाह के पश्चात जबरजस्ती का शारीरिक संबंध बनाने पर कोई प्रश्न क्यों नहीं उठाता ? " क्या विवाह पुरुष को बलात्कार करने की खुली छूट देता है?" सदियों से महिलाएं वैवाहिक दुष्कर्म का शिकार होती रही है। यदि विवाह से पूर्व बलात्कार अपराध है तो विवाह के बाद क्यों नहीं? इस पर विचार अति आवश्यक है।
     उपरोक्त लेख के आधार पर कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न उठेगा की इससे तो वैवाहिक संस्था अस्थिर हो जाएगी? स्त्री पुरुष के बीच शारीरिक संसर्ग के बिना विवाह का क्या लाभ?
यहां पर मेरे कहने का भाव यह बिल्कुल नहीं है कि स्त्री पुरुष के बीच शारीरिक संसर्ग ना हो अपितु मैं यह कह रहा हूं कि शारीरिक संसर्ग दोनों की सहमति से हो पुरुष स्वयं को परमेश्वर मानने की धारणा का त्याग करें और सही अर्थों में मनुष्य बनने की चेष्टा करें, क्योंकि मनुष्यता का गुण आने से ही हम समानता की ओर अग्रसर होंगे तथा अपनी इच्छाओं को किसी पर थोपेगे नहीं बल्कि सारे कार्य पारस्परिक प्रेम से संपन्न होंगे। दोनों के संबंध सहज ही प्राणों से आंदोलित होंगे। यदि किसी कार्य के संबंध में असहमति है तो उस पर विचार करें और प्रेम से उसे सहमत करने का प्रयास करें।
                                                 बागीश धर राय
                                              (इतिहास शोधार्थी) 
                                               लेखन सहयोग
                                                 मो. आरिफ







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