जिन्ना हीरो या विभाजन के सबसे बड़े विलेन



 जिन्ना हीरो या  विभाजन के सबसे बड़े विलन ! 


 भारत के वर्तमान राजनीति के दौर को बड़े ही विडंबना का दौर कहा जा सकता है। वर्तमान में राजनीति का केंद्र बिंदु इतिहास को बनाया जा रहा है ना कि वर्तमान के तमाम ज्वलंत मुद्दों को । आजादी के 74 वर्ष बाद आज भारतीय राजनीति में जिन्ना को लेकर विवाद शुरू हो गया है।

  भारतीय इतिहास में जिन्ना का व्यक्तित्व बहुत ही विरोधाभासपूर्ण है । जिन्ना के जीवन को दो हिस्सों में बांट कर ही सही मूल्यांकन किया जा सकता है । 

प्रारंभिक जीवन में मोहम्मद अली जिन्ना बैरिस्टर बनने के बाद जब भारत लौटे तो धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी, राष्ट्रवादी दादा भाई नौरोजी के समर्थक थे। भारत आते ही वह कांग्रेस में शामिल हो गए और 1906 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी के सचिव पद पर काम किया। जिन्ना को राष्ट्रवाद के लिए पहली प्रेरणा दादा भाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नेताओं से मिली। सुरेंद्रनाथ बनर्जी के बारे में जिन्ना स्वयं लिखते है, "मैंने राजनीति का प्रथम पाठ सुरेंद्रनाथ बनर्जी के चरणों में पढ़ा"|

1906 में मुस्लिम लीग का गठन किया जा रहा था तो जिन्ना इसके विरोध में थे। 1909 में पृथक मतदाता मंडल के विरोध में जिन्ना ने कहा कि यह सिद्धांत राष्ट्र का आंतरिक विभाजन कर रहा है| 1906 के बाद जिन्ना ने जितनी सभाएं की उसमें राष्ट्रीय एकता पर बल दिया । 1916 ने जिन्ना और तिलक के प्रयत्न से ही कांग्रेस लीग समझौता हुआ। इससे प्रभावित होकर सरोजनी नायडू ने जिन्ना को "हिंदू मुस्लिम एकता का राजदूत" कहा।

जिन्ना के जीवन का दूसरा हिस्सा 1920 के बाद शुरू होता है। सांप्रदायिकता का अपना तर्क होता है और उसे यदि शुरू में ही नहीं रोका गया तो बढ़ना और उग्रवादी होना अनिवार्य  है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण जिन्ना की जीवन कथा है। गांधी जी के कांग्रेस मे आने से 1920 के बाद कांग्रेस का रास्ता तत्कालीन कानूनों की शांतिपूर्ण अवज्ञा पर आधारित जन राजनीति की ओर मुड़ा। जिन्ना इससे सहमत नहीं थे अंततः जिन्ना ने कांग्रेस छोड़ दी । लेकिन जिन्ना को यह स्पष्ट दिखाई दे रहा था की सिर्फ उदारवादी राजनीति का कोई भविष्य नहीं है। गांधी के सामने जिन्ना बौने प्रतीत हो रहे थे। जिन्ना राजनैतिक निर्वासन का शिकार नहीं होना चाहते थे।    अतः वह सांप्रदायिक राजनीति की ओर बढा । जिन्ना अब नरमपंथी सांप्रदायिक नेता हो गए। 1924 में मृत्युशैया पर लेटी मुस्लिम लीग को पुनर्जीवित किया। धीरे-धीरे जिन्ना राष्ट्रवादियों से दूर होते चले गए और उनका पूरा सामाजिक आधार सांप्रदायिक दिमाग वाले व्यक्तियों के बीच सीमित हो गया ।

1937 के प्रांतीय चुनाव के पहले तक जिन्ना नरमपंथी सांप्रदायिक ही थे परंतु चुनाव के निष्कर्ष जिन्ना की कल्पना के अनुरूप नहीं था। अब जिन्ना नरमपंथी विचारधारा से निकलकर उग्रपंथी सांप्रदायिक व्यक्ति के रूप में सामने आए। अब जिन्ना की राजनीति घृणा से भर गई और उग्रवादी हो गई अब वह इस्लाम खतरे में है, मुल्क में हिंदू राज कायम हो जाएगा, का हल्ला मचाने लगे।

जिन्ना और उसकी टीम ने मुसलमानों को भड़काने मे कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। सिंध के एक प्रमुख लीगी की नेता M H गजदर ने 1941 में कहा " अगर हिंदू कायदे से पेश नहीं आए तो उन्हें उसी तरह से खत्म करना होगा जैसे जर्मनी में यहूदियों को "| अब जिन्ना और मुस्लिम लीग का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों से आजादी नहीं बल्कि हिंदुओं से आजादी थी।

   जिन्ना जो इस्लाम और इस्लामिक विचारधारा में कोई श्रद्धा नहीं रखता था फिर भी वह मुस्लिम संप्रदाय का सबसे बड़ा प्रवक्ता बनकर उभरा। उसकी धर्म में कोई विशेष रूचि नहीं थी फिर भी उसने धर्म के नाम पर एक अलग राष्ट्र की मांग की और अपनी कुटिल चाल में सफल भी रहा।

किसी भी व्यक्ति का जीवन इससे निर्धारित नहीं किया जा सकता कि वह क्या था बल्कि इससे निर्धारित होना चाहिए कि उसने जीवन में पूरे प्रयत्न से क्या हासिल किया और किसके प्रति समर्पित रहा। इसके आधार पर जिन्ना भारत की हीरो नहीं बल्कि विभाजन के सबसे बड़े जिम्मेदार और विलेन है।



क्या जिन्ना के प्रधानमंत्री बनने पर विभाजन टल जाता? 

भारत में नेताओं ने धर्म और इतिहास के व्याख्या की पूरी जिम्मेदारी ले रखी है। आत्ममुग्धता में नेता ऐसी बात बोल जाते हैं जो इतिहास के तथ्यों से मेल नहीं खाते हैं।

दरअसल 1946-47 तक सांप्रदायिकता ने एक विकराल रूप ले लिया था। सांप्रदायिकता का कोई तात्कालिक समाधान नहीं होता है। कांग्रेसी नेताओं के तमाम प्रयासों के बावजूद जिन्ना अलग देश के मुद्दे पर पीछे नहीं हुए। जिन्ना जैसे लोगों को भारत में अपना भविष्य नहीं दिख रहा था वे लोकतंत्र से भयभीत थे। लोकतंत्र में सारी शक्ति का केंद्र जन सामान्य होता है जबकि मुस्लिम अभिजात्य वर्ग इस प्रकार के लोकतंत्र के लिए राजी नहीं था। 1946 में रावलपिंडी, नोआखाली और बिहार के दंगों ने बंटवारे को निश्चित कर दिया था।

 बागीश धर राय

(इतिहास शोधार्थी) 

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